जालोर जिले में एक छतरी हैं जो करीब-करीब 165 साल पुरानी हैं ।
इस छतरी को बनाने का किस्सा दरअसल इस प्रकार है - जोधपुर महाराजा तख्तसिंह (1843-1873) शिकार खेलने के बडे़ शौकीन थे ।
गर्मियों के दिनों में अक्सर वो शिकार के लिये जालोर के ऐसराणा व अरावली पर्वत श्रेणियों की ओर रूख करते थे ।
तब उनके साथ उनकी रानियां भी साथ रहा करती थी । कुछ रानियां सवारी व बंदूक चलाने में प्रवीण थी ।
उन दिनों की बात हैं, वो ऐसराणा पर्वत श्रृंखला के मायलावास गांव में शिकार के लिये आये हुए थे ।
तब ऐसराणा पर्वत में शेर, भालु, सुअर, तेंदुए, हिरण, खरगोश बडी़ संख्या में यहां मौजूद थे ।
शिकारगाह के लिए ये राजा महाराजाओं की पसंदीदा जगह थी ।
पानी भी पर्याप्त था और पुरा क्षेत्र हराभरा था ।
उनका लाव लश्कर साथ था ।
महाराजा के शिकार के लिये मचान बनाया गया और उस मचान के नीचे तीखे भाले लगाये गये ।
ताकि घायल शिकार उन पर हमला न कर सके ।
एक दिन की घटना हैं महाराजा तख्त सिंह व उनकी महारानी भटियाणी जी मचान पर थे ।
अचानक से महारानी का पैर फिसला और घायल शिकार से बचने के लिये लगाये गये भालो पर गिर पडी़ ।
ऐसे में भटियाणी महारानी उन भालों में बिंध गई ।
मौके पर ही महारानी की मृत्यु हो गई ।
महाराजा तख्त सिंह ने उनकी याद में उसी जगह जोधपुरी पत्थर से विशाल छतरी बनाई थी ।
तभी से यहां पर उस छतरी में भटियाणी सती के रूप में पूजा की जाती हैं । यहां के लोगों का मानना है कि सती भटियाणी जी के छतरी पर मन्नत मांगने पर पुर्ण होती हैं । ये छतरी क्षेत्रभर में आस्था का केंद्र बनी हुई हैं ।
विशेष दिवस पर ग्रामीणों द्वारा मेले का भी आयोजन कीया जाता हैं । यह छतरी मायलावास व बारलावास की सीमा पर ही बनी हुई हैं ।
जो माताजी की छतरी
नाम से जाना जाता है ।
यह स्थान खातेदारी आराजी के बीच आया हुआ है ।
खातेदारी जमीन एक मुसलमान भाई की है ।
वो परिवार ही इस छतरी की देखरेख करता है ।
जो भी छतरी माताजी के प्रति गहरी आस्था रखते है और यहाँ दर्शन करने भक्त आते है,
उनके बैठने, पानी, चाय की सुविधा का पूरा ध्यान यह परिवार रखता है और भजन जागरण प्रसादी भी रखते है
इन्हीं महाराजा की वजह से बारलावास का नाम महाराजा तख्त सिंह के नाम पर तख्तपुरा पडा़ । ऐसराणा पर्वत श्रृंखला के ये गांव धार्मिक व ऐतिहासिक दृष्टि बडे़ महत्वपूर्ण गांव हैं ।
आज भी इस पर्वत क्षेत्र में बघेरे, हिरन, सियार मौजूद है....